Monday, August 30, 2010

पत्रकारिता के नाम पर कलंक

पत्रकारिता के नाम पर कलंक

जब से पत्रकारिता का मीडिया के साथ अनुबंध हुआ है या यूँ कहें कि जबसे पत्रकारिता नें अपना नाम बदलकर मीडिया रख लिया है, तब से इसके भाव कुछ ज़्यादा ही चढ गये हैं। भाव तो इस कदर चढ गये हैं कि इसको अपनी आँख के अलावा मछली की आँख तक देखने की फुरसत नहीं है। अगर वास्तव में इसके सही पहलुओं पर विचार किया जाय तो निष्कर्श यह निकलता है कि पत्रकारिता और मीडिया शब्द वास्तव में कर भी क्या सकते हैं। जैसा कि हम जानते ही हैं कि शब्द इन्सानों द्वारा गढि़त या यूँ कहें कि प्रतिस्ठित, चतुर, चालाक, तिकड़मीं आदि आदि प्रकार के लोगों के दिमाग में उपजे गढंत हैं । जैसे कि इन्सान को भगवान नें बनाया फिर हम नें यानी इन्सानों नें रिस्ते-नाते, ऊँच-नीच, जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय, आदि में बांट दिया। अभी बात चल रही थी पत्रकारिता की जहाँ पर सिद्ध हो गया कि कि यह इन्सान की उपज है, तो फिर क्यों ना इन्सान इसमें अपना बस चलानें की कोशिश करे। जब किसी चीज़ का कद और शक्ति बढती है तब उसकी तरफ पूरी क़ायनात का झुकाव लाजमी है। यानी जब मीडिया या पत्रकारिता भारतीय लोकतंत्र का चौथा खम्भा या पिलर बन ही गया है तो इसमें भी बदलाव आना ही चाहिये भले ही यह पिलर निर्जीव या चेतना हीन ही क्यों न हो। क्योंकि परिवर्तन ही संसार का नियम है। मीडिया का कद बढते ही इसमें रोटी ढूढने वालों की कतार भी बढने लगी। जब यह कतार बढी और इस क्षेत्र में काम करने वालों की मात्रा बढी तो मीडिया शब्द के साथ शोषण शब्द जुड़ गया। फिर शोषण कुछ इस कदर बढने लगा कि रोज़ खुल रहे मीडिया संस्थानों से निकले छात्रों को यानी भावी पत्रकारों को निजी समाचार चैनलों, समाचार पत्रों, प्रोडक्सन हाउस, और समचार से जुड़े सभी क्षेत्रों में बिना बेतन के फ्रेशर का ठप्पा लगाकर दो महीने चार महीने मुफ्त में काम कराने की प्रथा चल पडी। यह प्रथा और सभी क्षेत्रों में भी है ऐसा नही की यहीं बस है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जा सकता कि इस दुनिया का अगर एक इन्सान अँधा है तो हम सारी दुनिया को ही अँधा कर दें। और इस प्रकार अपने घर का भी फूँक कर निजी संस्थानों को फायदा पहुँचाने का धंधा चल पड़ा। अब अगर कहें कि तो फिर लोग करते क्यूँ हैं, तो भाई कोई कितना भी पढ लिख कर, प्रशिक्षण लेकर तैयार हो जाय उसे पैसा न देना पड़े और उसकी सद्बुद्धि का सदुपयोग अपने चैनल को आगे बढाने में कैसे उपयोग किया जाय, इसका बखूबी इन्तजाम किया गया और वही फ्रेशर वाली शील सभी निजी संस्थानों नें बनवाकर रख ली और बच्चों पर दे मारी। यानी 4-6 महीने मुफ्त में काम करो तब जा कर बेतन लेने लायक हो पाओगे। नाटक की सीन यहीं खतम नही होती अगर किसी को नौकरी मिल भी गई तो बिना अप्वाइन्टमेन्ट लेटर के लेबर की तरह नियुक्त कर लिया जाता है। अब यहाँ शुरू होता है असली खेल। इसके बाद जो पुराने कर्मचारी और ऊँचे पोस्ट के लोग होत हैं वे अपने अधीनस्तों से पैसे से ज़्यादा और समय से ज़्यादा काम लेते हैं। इसकी इजाज़त मीडिया और पत्रकारिता नही देता, इसे तो सिर्फ बदनाम किया जाता है। यह काम तो इसके अंदर काम करने वाले कामचोर मीडिया मोहरों का है। यहा पर अधीनस्थ खुल कर और आवाज़ बुलंद कर के बोल भी नही सकते क्योंकि उनके पास तो कोई अथराइज्ड लेटर भी नही है , और दूसरा न बोलने का कारण उनके पीछे लगी हुई लम्बी कतार। इस नई पीढी (पत्रकारों) के मन में यह बात आना लाज़मी है कि जायें तो जायें कहाँ। इसलिये वरिष्ठ पत्रकार अपने अधीनस्थ को अपना भी काम सौप कर रफूचक्कर हो लेते हैं। अब अनुभवी पत्रकारों के तरफ से यह यह दलील आ जाती है कि इससे तो सीखने का मौका मिलता है शोषण कहाँ होता है, लेकिन सीनियर यह भूल जाते हैं कि जहाँ काम आवै सुई कहाँ करै तलबार। ऐसा नही कि यह पूरी बिरादरी ही एक तरह की है। यहाँ भी लोग ऐसे हैं जिनसे पत्रकारिता को गर्व होता है। लेकिन वो कुछ ऐसे जगहों में मिलते हैं, जिनको देख कर लोग हंसते हैं, कभी-कभी सफेद बाल के पीछे, टूटीफूटी मेज और कुर्सी के नीचे, चलिसमा (पाँवर का चश्मा) के पीछे, डण्डे के सहारे या किसी इन्सान के सहारे, लडखडाती जीभ और धोखा दे चुके दातों के सहारे, बेचारगी भरी पलकों के नीचे आदि आदि। यानी अनुमान लगाना आसान है कि कौन सी पीढी कहाँ है। इसके इतर भी लोग मिलते हैं लेकिन अब यह ब्यवसाय उनको अपने साथ टिकने और अपने पास फटकने का इजाज़त नही देता। यानी इस क्षेत्र में ताजा-ताजा जो पौधरोपड़ किया गया है उसमे फूल लगने, फल लगने, फल के मजबूत होने और पकने का बहुत ही नजदीक समय आ गया है। इसलिये पूरे बगीचे के पौधों को साथ में मिलकर निर्णय लेने और आपस में एक दूसरे से लिपट जाने का समय आ गया है जिससे कि कोई छति ना पहुचा सके बर्ना अगर किसी प्रकार से बाग को छति पहुचाने में कामयाबी मिली समझो समाज की प्राँण वायु आक्सीजन का उन्मूलन हो जायेगा, और जो मीडिया आज अपनी टी.आर.पी. बढाने के लिये झूठ की अफवाह फैलाती घूम रही है कि 2012 में प्रलय आ जायेगी। वह सिर्फ मीडिया के लिये आयेगी और किसी भी प्रकार की क्षति नही होगी इसका दावा है। एक बात और कि अगर मीडिया और पत्रकारिता की यह पौध भी अगर ना जागी तो समाज में विचार, सोच, आपसी समझ, आदि सभी उपजों में प्रलय ज़रूर आ जायेगी। और यह समाज बिना पानी की मछली की तरह हो जायेगा। यानी अब नई पीढी ठान ले और इस बात को भलीभाँति समझ ले कि अगर अधिकार मागने से न मिले तो छीनना भी धर्म है।

Sunday, August 22, 2010

वक्त की परछाइयों को ढूढियेगा मत
वरना आप भी बनजायेंगे साया मानलीजिये
बस इन्तहाँ की होड़ में भागियेगा मत
वरना हर कदम पर फिसल जायेंगे मानलीजिये
हर कदम पर मंज़िल से आँखमिचौली करिये मत
वरना रास्ते मुह मोड़ लेंगे मानलीजिये
कोई सफर में अपना पराया नही होता
सिर्फ सुनिये नही अब मानलीजिये
हौसलों की डोर टूटे जुड़ भी जाती है
मोहब्बत में खलल आये अगर फिर रोकलीजिये
साया आप भी हैं, हम भी हैं, दुनिया भी है लेकिन
मिसाल अब हमे बनना है ठानलीजिये

Saturday, August 21, 2010

आखिर कहाँ है राजनीति की संवेदना

आखिर कहाँ है राजनीति की संवेदना

गैस त्रासदी को लेकर चल रही राजनीति और राजनीतिक दलों का आपसी जंग लड़नें का इसे सुसज्जित अखाड़ा बना लेने की प्रवृति जो इतने सालों से चली आ रही है उसे देखते हुये जनता के मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आखिर कहाँ गई राजनीति की संवेदना ? जब आम आदमी और पीड़ितों की आवाज़ बुलंद होती है तो सारे राजनीतिक दल तो काँप ही जाते हैं साथ ही साथ तात्कालिक दोषियों की भी धड़कनें तेज़ हो जाती हैं और हड़बड़ाहट में कुछ की कुछ बयानवाजी कर बैठते हैं। वे सायद जानते हुये भी भुलानें की कोशिश कर रहे हैं कि यह जो दोषियों को बचाने की पटकथा, पटकथा लेखक से लिखवाई जा रही है वह हकी़क़त की ज़िन्दगी में काम नही आने वाली क्योंकि रील और रियल लाइफ में बहुत अंतर होता है। अब वह ज़माना गया जब जनता सिर्फ सिनेमा की स्क्रीन पर दिखने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को सबकुछ समझती थी। अब उसे भलीभाँति ख़बर हो चुकी है कि दिखने वाले मोहरे के अलावा और इसे सफल बनाने के पीछे उस कहानी की आइडिया दिमाग़ में आना शूटिंग की बजट और लोकेशन निर्धारित करना, कैमरा मैन, सहायक, भीड़ जुटाना, फि़ल्म जनता तक आसानी से पहुँच सके उसकी मार्केटिंग करवाना आदि-आदि। इन सबके बीच अभिनेता का चाँकलेटी चेहरा और कैमरे के सामने अपने आप को कहानी के हिसाब से प्रस्तुत कर सकने की क्षमता के कारण चेहरे में इस्नो-पाउडर लगा कर अभिनय करादिया जाता है। ऐसा नही की अगर फ़िल्म ग़लत बन रही है तो इसके लियें अभिनेता दोषी नही है क्योंकि अभिनय से पहले कहानी पढने और उसे भली भाँति समझनें का अधिकार अभिनेता के पास मौजूद है, तब भी ग़लती करे तो अभिनेता दोषी ज़रूर है। लेकिन इससे भी ज़्यादा गुनहगार तो वह है जिसके मन में इस प्रकार की सोच ने जन्म लिया और तो और हद तो तब हो गई जब उसने इस कहानी पर बाकायदा खेल रचाना शुरू कर दिया। उसने यह भी नही सोचा कि इसका असर उस पर क्या पड़ेगा जो इसका आखिरी लक्ष्य है। ठीक इसी प्रकार की आँख मिचौली भारतीय राजनीति में भोपाल गैस त्रासदी को लेकर चल रही है। कुछ तो इस प्रकार से चल रहा है कि पीड़ित जनता और उसके अंगभंग हुये शरीर को ऐसे उपयोग किया जा रहा जैसे फ़िल्म की किसी सीन को आकर्षक बनानें के तिये अभिनय कराया जाता है। जहाँ एक हिस्सा सुध ही नही लेना चाहता इसे सबकी नजरों से ओझल रखना चाहता है वही दूसरी और दूसरा हिस्सा इन्ही तस्वीरों की खासी बड़ी होर्ड़िंग बनवाकर बीच चौराहों में लगवादेता है और कोने में अपना निसान लगाना नही भूलता। जिससे जनता यह कह सके कि कम से कम किसी ने सुध तो ली। अगली वोटिंग तक यही सिलसिला चलता रहता है। लेकिन वोटिंग खत्म होने के बाद वहीं पर बेरोक टोक कोई दूसरी होर्ड़िंग लगजाती है और यहाँ पर यह कहावत चरितार्थ होती नजर आती है कि रात गई बात गई। लेकिन भोपाल की जनता उस रात और उस बात दोनों को कैसे जाने दे सकती है। अगर इसकी कोशिश भी करते हैं तो उनकी जमीर इसकी इजाज़त नही देती। जिस प्रकार एक ड़ाँक्टर अपने मरीज से यह जता देता है कि कोई मर्ज़ ज़्यादा बिकरार रूप ले इसके पहले परहेज करना और दबा लेना शुरू कर दे। बरना अगर संभव हुआ तो आँपरेशन से पीड़ा देकर मर्ज़ ठीक किया जायेगा। लेकिन मर्ज़ अगर ऐसा निकला जिसका आँपरेशन संभव न हो तो दबा के सहारे कुछ दिन ही जिन्दा रहा जा सकता है। इस राजनीतिक सेहत की जानकारी जनता के पास बखूबी विद्यमान है और वह अपने हितों की रक्षा के लिये इनका उपयोग करना भी जानती है।


रोहित सिंह चौहान
बघवारी,सीधी,(म.प्र.)